Wednesday, January 29, 2025

उपभोक्तावाद की संस्कृति

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लेखक कहते हैं कि उपभोग सुख नहीं है। उनके अनुसार मानसिक, शारीरिक और सूक्ष्म आराम सुख है। लेकिन आजकल केवल उपभोग के साधनों – संसाधनों का अधिक से अधिक भोग ही सुख माना जाता है।उपभोक्तावाद संस्कृति ने हमारे दैनिक जीवन को पूर्ण रूप से अपने प्रभाव में ले लिया है। सुबह उठने के समय से लेकर सोने के समय तक ऐसा लगता है कि दुनिया में विज्ञापन के अलावा कोई चीज़ देखने या सुनने लायक नहीं है। परिणाम स्वरूप हम वही खाते-पीते और पहनते-ओढ़ते हैं जो विज्ञापन हमें बताते हैंइस प्रकार उभोक्तावादी संस्कृति के कारण हम उभोगों के गुलाम बनते जा रहे हैं। हम सिर्फ अपने बारे में सोचने लगे हैं। इससे हमारे सामाजिक संबंध संकुचित हो गए हैं। मर्यादा और नैतिकता समाप्त हो रही है।गांधीजी ने उपभोक्तावादी संस्कृति के दुष्प्रभाव को पहले ही समझ लिया था। इसलिए उन्होंने भारतीयों को अपनी बुनियाद और अपनी संस्कृति पर दृढ़ रहने के लिए कहा था।     

प्रश्न- अभ्यास

1. लेखक के अनुसार जीवन में ‘सुख’ से क्या अभिप्राय है?

उत्तर :

लेखक का मानना है कि जीवन में सुख केवल भौतिक सुख तक सीमित नहीं है। मानसिक शांति, शारीरिक स्वास्थ्य और आध्यात्मिक संतुष्टि भी सुख के महत्वपूर्ण पहलू हैं। परंतु आजकल लोग भौतिक वस्तुओं के उपभोग को ही सुख मानने लगे हैं।

2. आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रही है ?

उत्तर :

उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमारे दैनिक जीवन को गहराई से प्रभावित किया है। आज व्यक्ति उपभोग को ही सुख का मापदंड मानने लगा है। इसके चलते लोग अधिक से अधिक वस्तुओं का उपभोग करने की चाह रखते हैं। लोग अब बहुप्रचारित वस्तुएं खरीदकर केवल दिखावा करने लगे हैं। इस संस्कृति के कारण मानवीय संबंध कमजोर होते जा रहे हैं। अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई से समाज में अशांति और आक्रोश में इजाफा हो रहा है।

3. लेखक ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती क्यों कहा है?

उत्तर :

गाँधी जी सामाजिक मर्यादाओं और नैतिकता के प्रबल समर्थक थे। वे सादा जीवन और उच्च विचार में विश्वास करते थे। उनका मानना था कि समाज में आपसी प्रेम और संबंधों को बढ़ावा मिलना चाहिए। लोग संयम और नैतिकता का पालन करें। लेकिन उपभोक्तावादी संस्कृति इन मूल्यों के विपरीत कार्य करती है। यह भोगवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है और नैतिकता व मर्यादा को दरकिनार कर देती है। गाँधी जी चाहते थे कि हम भारतीय अपनी जड़ों से जुड़े रहें, यानी अपनी संस्कृति को न त्यागें। किंतु आज, उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव में, हम अपनी सांस्कृतिक पहचान को खोते जा रहे हैं। इसलिए गाँधी जी ने उपभोक्तावादी संस्कृति को हमारे समाज के लिए एक गंभीर चुनौती माना है।

4. आशय स्पष्ट कीजिए-

(क) जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।

(ख) प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं, चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हो।

उत्तर :

(क) यह वाक्य बता रहा है कि हम आज के समाज में रहते हुए अनजाने में ही अपने व्यवहार और सोच को बदल रहे हैं। हम उत्पादों के प्रति अधिक आकर्षित हो रहे हैं और उनकी ओर झुक रहे हैं। इसका मतलब यह है कि हमारी प्राथमिकताएँ बदल रही हैं और हमारी पहचान अब उत्पादों से जुड़ती जा रही है।

(ख) यह वाक्य बता रहा है कि प्रतिष्ठा या सम्मान पाने के कई तरीके हैं। कुछ तरीके तो इतने अजीब या हास्यास्पद भी हो सकते हैं।

रचना और अभिव्यक्ति

5. कोई वस्तु हमारे लिए उपयोगी हो या न हो, लेकिन टी.वी. पर विज्ञापन देखकर हम उसे खरीदने के लिए अवश्य लालायित होते हैं? क्यों?

उत्तर :

विज्ञापन आजकल हमारी जिंदगी का एक अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं। हम टीवी देखते हों, इंटरनेट सर्फ करते हों या रेडियो सुनते हों, विज्ञापन हर जगह हमें घेरते हैं। ये विज्ञापन मनोवैज्ञानिक तकनीकों का उपयोग करके हमें प्रभावित करते हैं। आकर्षक रंग, संगीत, और मज़ेदार स्लोगन का इस्तेमाल करके वे हमें उनके उत्पादों के प्रति आकर्षित करते हैं। विज्ञापन हमें यह भी महसूस कराते हैं कि अगर हमारे पास यह उत्पाद नहीं है तो हम दूसरों से पीछे रह जाएंगे। वे हमारी भावनाओं पर खेलते हैं, हमें हंसाते हैं, रुलाते हैं, और हमें डराते हैं। इस तरह वे हमें ऐसी चीजें खरीदने के लिए मजबूर करते हैं जिनकी हमें वास्तव में जरूरत नहीं होती है। उदाहरण के लिए, एक मोबाइल फोन का विज्ञापन हमें यह दिखाता है कि अगर हमारे पास यह फोन नहीं है तो हम अपने दोस्तों से संपर्क में नहीं रह पाएंगे। इस तरह से विज्ञापन हमें अपनी जरूरतों से अधिक खर्च करने के लिए प्रेरित करते हैं।

6.आपके अनुसार वस्तुओं को खरीदने का आधार वस्तु की गुणवत्ता होनी चाहिए या विज्ञापन ? तर्क देकर स्पष्ट करें।

उत्तर :

हालांकि विज्ञापन हमारे खरीददारी के फैसले को प्रभावित करते हैं, लेकिन हमें हमेशा गुणवत्ता को प्राथमिकता देनी चाहिए। हमें विज्ञापनों पर आंख बंद करके भरोसा नहीं करना चाहिए बल्कि उत्पाद के बारे में खुद रिसर्च करनी चाहिए। हमें यह देखना चाहिए कि उत्पाद की गुणवत्ता क्या है, इसकी कीमत क्या है और क्या यह हमारे लिए उपयोगी है।

अंत में, हमें यह याद रखना चाहिए कि हमारी खुशी और संतुष्टि किसी चीज को खरीदने से नहीं बल्कि उसका उपयोग करने से मिलती है।

7. पाठ के आधार पर आज के उपभोक्तावादी युग में पनप रही ‘दिखावे की संस्कृति’ पर विचार व्यक्त कीजिए ।

उत्तर :

आज के समय में दिखावे की संस्कृति तेजी से पनप रही है, और यह बात पूरी तरह सत्य है। लोग अब वही चीज़ें अपनाने लगे हैं, जो दूसरों की नजरों में अच्छी दिखें। सभी सौंदर्य प्रसाधन केवल मनुष्यों को सुंदर दिखाने के प्रयास में जुटे हुए हैं। पहले यह प्रवृत्ति केवल महिलाओं तक सीमित थी, लेकिन आज पुरुष भी इस दौड़ में आगे निकल गए हैं। नए-नए परिधान और फैशनेबल वस्त्र इस दिखावे की संस्कृति को और बढ़ावा दे रहे हैं।

आज लोग घड़ी समय देखने के लिए नहीं खरीदते, बल्कि अपनी हैसियत दिखाने के लिए लाखों रुपए खर्च कर महंगी घड़ियाँ पहनते हैं। हर चीज़ अब पाँच सितारा संस्कृति का हिस्सा बन चुकी है। खाने के लिए पाँच-सितारा होटल, इलाज के लिए पाँच-सितारा अस्पताल, और पढ़ाई के लिए पाँच-सितारा सुविधाओं वाले विद्यालय—हर जगह दिखावे का ही बोलबाला है। यहाँ तक कि लोग मरने के बाद अपनी कब्र के लिए भी लाखों रुपए खर्च करने लगे हैं, ताकि दुनिया में उनकी हैसियत को याद रखा जा सके।

यह दिखावा संस्कृति इंसान को इंसान से दूर कर रही है। लोगों के सामाजिक संबंध कमजोर हो रहे हैं। मन में अशांति और आक्रोश का जन्म हो रहा है। तनाव बढ़ रहा है, और हम अपने वास्तविक लक्ष्य से भटक रहे हैं। यह स्थिति अशुभ है और इसे रोकना आवश्यक है।

8. आज की उपभोक्ता संस्कृति हमारे रीति-रिवाजों और त्योहारों को किस प्रकार प्रभावित कर रही है? अपने अनुभव के आधार पर एक अनुच्छेद लिखिए।

उत्तर :

आज की उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव से हमारे रीति-रिवाज और त्योहार भी अछूते नहीं रहे हैं। पहले हमारे रीति-रिवाज और त्योहार सामाजिक समरसता बढ़ाने वाले, वर्गभेद को मिटाने वाले, और सभी को उल्लास व आनंद से भरने वाले होते थे। लेकिन उपभोक्तावादी संस्कृति के असर से इनमें बदलाव आ गया है। अब त्योहार अपने मूल उद्देश्य से भटक गए हैं। रक्षाबंधन के पावन अवसर पर अब बहन अपने भाई द्वारा दिए गए उपहार का मूल्य आँकने लगी है। दीपावली के त्योहार पर पहले मिट्टी के दीये न केवल प्रकाश फैलाते थे, बल्कि समानता का प्रतीक भी थे। लेकिन अब बिजली की लड़ियों और सजावटी वस्तुओं ने अमीर-गरीब के बीच का अंतर और स्पष्ट कर दिया है। यही स्थिति अन्य त्योहारों की भी हो गई है।

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Dr. Upendra Kant Chaubey
Dr. Upendra Kant Chaubeyhttps://education85.com
Dr. Upendra Kant Chaubey, An exceptionally qualified educator, holds both a Master's and Ph.D. With a rich academic background, he brings extensive knowledge and expertise to the classroom, ensuring a rewarding and impactful learning experience for students.
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